Page 51 - लक्ष्य - चंडीगढ़ क्षेत्रीय कार्यालय की पत्रिका
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तब बालवाड़ी ( ले क ल) जैसा कोई कॉ से ट ही नह था।
6–7 साल पूर होने क बाद ही सीधे क ल भेजा जाता था।
अगर क ल न भी जाएँ तो कसी को फक नह पड़ता।
न साइ कल से, न बस से भेजने का रवाज़ था।
ब े अक ले क ल जाएँ, क छ अनहोनी होगी –
ऐसा डर माता– पता को कभी नह आ।
पास/फ ल यही सब चलता था।
तशत (%) से हमारा कोई वा ता नह था।
यूशन लगाना शम नाक माना जाता था।
कताब म पि याँ और मोरपंख रखकर पढ़ाई म तेज हो जाएँगे –
यह हमारा ढ़ व ास था।
कपड़ क थैली म कताब रखना,
बाद म टन क ब से म कताब सजाना –
यह हमारा ए टव कल था।
हर साल नई क ा क लए कताब–कॉपी पर कवर चढ़ाना –
यह तो मानो वा ष क उ सव होता था।
साल क अंत म पुरानी कताब बेचना और नई खरीदना –
हम इसम कभी शम नह आई।
दो त क साइ कल क ड ड पर एक बैठता, क रयर पर दूसरा –
और सड़क–सड़क घूमना... यही हमारी म ती थी।
क ल म सर से पटाई खाना,
पैर क अंगूठ पकड़कर खड़ा होना,
कान मरोड़कर लाल कर देना –
फर भी हमारा “ईगो” आड़ नह आता था।
असल म हम “ईगो” का मतलब ही नह पता था।
मार खाना तो रोज़मरा का ह सा था।
मारने वाला और खाने वाला – दोन ही खुश रहते थे।
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